“राम” नाम “सत्य” है, अर्थात.....................?
* पंकज श्रीवास्तव
जब
हम
किसी
स्वजन
की
शवयात्रा
में
जा
रहे
होतें
हैं
या
दूसरे
शब्दों
में
जब
हम
अपने
जीवन
में
यथार्थ
के
सबसे
अधिक
निकट
होते
हैं
तब “राम नाम सत्य है सत्य बोलो मुक्ति”
है
मन्त्र
का
उच्चारण
करते
हैं।
आइये एक
कोशिश
करते
हैं
इस
मन्त्र
का
आशय
एवं
इसके
भाव को
जानने
की,
यहां
पर
राम
नाम
धर्म
का
द्योतक
है।
“नहि सत्यात् परो धर्मो न पापामनृतात परम
तस्मात् सर्वात्मना मर्त्यः सत्मेकं समाश्रेयत।
सत्यहीना वृथा पूजा सत्यहीनो वृथा जपः,
सत्यहीनं तपो व्यर्थमूषरे वपनं यथा”।।
(महानिर्माण तंत्र)
अर्थात
सत्य
से
बड़ा
धर्म
नहीं
है
न
ही
झूठ
से
बडा
पाप।
इसलिये
मनुष्य
को
सदा
एकमात्र
सत्य
का
आश्रय
लेना
चाहिये
।
सत्यहीन
पूजा
व्यर्थ
है।
सत्यहीन
जप
व्यर्थ
है।
सत्यहीन
तपस्या
वैसे
ही
व्यर्थ
है
जैसे
ऊसर
भूमि
में
बीज
बोना।
धर्म
का
आधार
सत्य
है]
कोई
भी
धर्म
अपने
आप
में
सम्पूर्ण
नहीं
है
या
कोई
भी
सम्प्रदाय
या
विचारधारा
यथार्थतः
मनुष्य
के
जीवन
को
पूर्णता
प्रदान
नहीं
करता
तथापि
सत्य
एक
ऐसा
मार्ग
है
जो
सिर्फ
मानव
जीवन
को
ही
नहीं
अपितु
सम्पूर्ण
मानवता
को
मुक्ति
के
द्वार
तक
पंहुचाता
है।
सत्य
से
बड़ा
धर्म
नहीं
है
इस
विषय
पर
विचार
करने
के
लिये
आवश्यक
है
कि
हमे
यह
समझ
लेना
चाहिये
कि
जग
में
यदि
कोई
चीज
धर्म
है
तो
निश्चित
रूप
से
सत्य
है।
सत्य
के
अतिरिक्त
कोई
धर्म
नहीं
है।
अब
प्रश्न
यह
उठता
है
कि
धर्म
क्या
है,
सत्य
क्या
है ?
धर्म
क्या
है ?
मै
समझा
दूं
कि
धर्म
से
मेरा
क्या
मतलब
है ?
मेरा
मतलब
हिन्दू
धर्म
से
नहीं
है
जिसकी
मै
बेशक
और
सब
धर्मों
से
ज्यादा
कीमत
आंकता
हूं।
मेरा
मतलब
उस
मूल
धर्म
से
है
जो
हिन्दू
धर्म
से
कहीं
उच्चतर
है]
जो
मनुष्य
के
स्वभाव
तक
का
परिवर्तन
कर
देता
है]
जो
हमे
अन्तर
के
सत्य
से
अटूट
रूप
से
बांध
देता
है
और
जो
निरन्तर
अधिक
शुद्ध
और
पवित्र
बना
रहता
है।
वह
मनुष्य
की
प्रकृति
का
ऐसा
स्थायी
तत्व
है
जो
अपनी
सम्पूर्ण
अभिव्यक्ति
के
लिये
कोई
भी
कीमत
चुकाने
को
तैयार
रहता
है
और
उसे
तब
तक
बैचैन
बनाये
रखता
है
जब
तक
उसे
अपने
स्वरूप
का
ज्ञान
नहीं
हो
जाता
तथा
स्रष्टा
के
और
अपने
बीच
का
सच्चा
सम्बन्ध
समझ
में
नहीं
आ
जाता।
12 मई 1020 के “यंग इण्डिया”
के अंक में प्रकाशित महात्मा गांधी के उक्त विचार वर्तमान में प्रचलित सभी सम्प्रदायों
से ऊपर उठकर धर्म के वास्तविक स्वरूप से परिचय कराते हैं। धर्म का मूल तत्व आत्मा की
एकता से है, जो व्यक्ति इस तत्व को नहीं समझता वह वेदों, शास्त्रों, गुरूवाणी, बाईबिल
या कुरान का पंडित होने पर भी मूर्ख है। जो दुनिया के दुखों से दुखी नहीं होता, जो
समाज के ऊंच-नीच, पवित्र-अपवित्र, हिन्दू-मुस्लिम के भेद को ब़ढ़ाता है वह समाज विध्वसंक
तत्व है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार व्यवस्था या वृत्ति जिससे लोक में मंगल
का विधान होता है, अभ्युदय की सिद्धि होती है वही धर्म है।
धर्म का पालन जोर जबरदस्ती
से नहीं हो सकता। धर्म पालन करते हुए मन में जो शांति रहनी चाहिये यदि वह न रहे तो
यह माना जा सकता है कि कहीं न कहीं हमारी भूल हुई होगी। हर व्यक्ति के लिये जो चीज
हृदयंगम हो गई हो, वह उसके लिये धर्म है। धर्म बुद्धिगम्य वस्तु नहीं है, हृदयंगम है
इसलिये धर्म मूर्ख लोगों के लिये भी है। कट्टरता से धार्मिकता थोड़ी बहुत मजबूत प्रतीत
होती है, सही है, लेकिन साथ साथ सच्ची धार्मिकता काफी निष्प्राण हो जाती है। कट्टरता
सभी धर्मो के लिये श्मशान भूमि के समान है। अपने धर्म के प्रति प्रेम, दूसरे के धर्म
के प्रति आदर और अधर्म के प्रति उपेक्षा यह तीन तत्व ही सच्चे धर्म को जन्म देते हैं।
यदि कोई हिन्दू धर्म का अनुयायी इस्लाम के प्रति या किसी धर्म का अनुयायी किसी भी अन्य
धर्म के प्रति दुराग्रह की भावना रखता है तो वह व्यक्ति धार्मिक नहीं साम्प्रायिक है।
जब कोई व्यक्ति यह कहता है
कि मेरा धर्म बड़ा है, मेरा पैगम्बर ही सच्चा है तो वह झूठ बोलता है, उसे धर्म का कखग
भी मालूम नहीं है। धर्म न तो सिद्धान्तों की थोथी बकवास है, न मत मतान्तरों का प्रतिपादन
और खण्डन है और न ही बौद्धिक सहमति ही है। धर्म का अर्थ है ह्रदय के अर्न्ततम प्रदेश
में सत्य की उपलब्धि। धर्म का अर्थ है ईश्वर का संस्पर्श प्राप्त करना, इस तत्व की
प्रतीति करना, उपलब्धि करना कि मैं आत्मस्वरूप हूं और अनन्त परमात्मा एवं उसके अनेक
अच्छे अवतारों से मेरा युगयुग का अच्छेद्य सम्बन्ध है।
मतवादों,
आचारों, पंथो, मंन्दिर-मस्जिदों की चिन्ता न करो। प्रत्येक मनुष्य के अन्दर जो सारवस्तु
अर्थात आत्मसत्व विद्यमान है, इसकी तुलना में सब तुच्छ है और मनुष्य के अन्दर यह भाव
जितना ही अधिक अभिव्यक्त होता है वह उतना ही जगकल्याण के लिये सामर्थ्यवान हो जाता
है। प्रथम इसी धन का उपार्जन करो, किसी में दोष मत ढूढ़ों, क्योंकि सभी मत सभी पंथ अच्छे
हैं। अपने जीवन द्वारा यह दिखा दो कि धर्म न तो शब्द होता है, न नाम, न सम्प्रदाय वरन
इसका अर्थ होता है अध्यात्मिक अनुभूति। जिसे अनुभव हुआ, वे ही इसे समझ सकते हैं। जिन्होने
धर्मलाभ प्राप्त कर लिया है, वे ही दूसरों में धर्म भाव संचारित कर सकते हैं, वे ही
मनुष्य जाति के श्रेष्ठ आचार्य हो सकते हैं। धर्म से अर्थ प्राप्त होता है। धर्म से
सुख का उदय होता है। धर्म से ही मनुष्य सब कुछ प्राप्त करता है। इस संसार में धर्म
ही सार है।
सत्य क्या है ?
सत्यं धर्मस्तपो योगः सत्यं ब्रम्ह सनातनम्।
सत्यं यज्ञः परः प्रोवतः सर्व
सत्ये प्रतिष्ठितम्॥
(वेद व्यास, महाभारत भांतिपर्व)
अर्थात सत्य ही धर्म है, तप
और योग है, सत्य ही सनातन ब्रम्ह है, सत्य को ही परम यज्ञ कहा गया है तथा सब कुछ सत्य
पर ही टिका है।
सत्य चार प्रधान वस्तुओं से
निर्मित होता है यथा- प्रेम, ज्ञान, भाक्ति और सौन्दर्य। मनुष्य के मुख से निकली वाणी
मात्र ही सत्य नहीं है, सत्य काव्य का साध्य और सौन्दर्य है। असत्य में शक्ति नहीं
है, अपने अस्तित्व के लिये उसे सत्य का सहारा लेना पड़ता है। प्रकृति ने सिर्फ दो तरह
की वस्तुओं का निर्माण किया है सत्य और असत्य। प्रथम दृष्टया सत्य, सत्य प्रतीत होता
है और असत्य असत्य। यदि कोई सत्य अशुभकारी है तो वह सत्य नहीं है सत्य सदैव कल्याणकारी
होता है।
सत्य
को विभिन्न विद्वानों ने अपनी अपनी तरह से व्याख्यित किया है। तुलसीदास के अनुसार
सत्य मूल सब सुकृत सुहाये।
वेद पुरान विदित मनु गाये॥
जहां तुलसीदास सत्य को अतयन्त
मनोहारी स्वरूप में देखते हैं वहीं रहीमदास सत्य को अद्भुत दृष्टि से देखकर कहते हैं
अब रहीम मुश्किल परी, गाढ़े
दोऊ काम।
सांचे से तो जग नहीं, झूठे
मिलें न राम॥
भक्तिकाल के एक और महान विचारक
कबीरदास सांच को सबसे बड़ा तप मानते हैं। काल या समय कोई भी रहा हो सत्य का स्वरूप सदैव
सौन्दर्ययुक्त और मधुर रहा है। हिन्दु विचारधारा को प्रभावित करने वाले समस्त वेद पुराण
सत्य को ही ईश्वर प्राप्ति का साधन मानते हैं। ऋगवेद में 'सत्येनोत्तामिता भूमि:' अर्थात
भूमि को सत्य द्वारा प्रतिष्ठित किया गया है वहीं अर्थववेद के अनुसार 'सत्येपनोध्र्वस्तपति'
सत्य से मनुष्य सबके ऊपर उठता है। वृहदारण्यक उपनिषद में लिखा है 'सत्य ब्रम्हेति सत्यं
ह्येव ब्रम्ह' अर्थात सत्य ब्रम्ह है सत्य ही ब्रम्ह है जबकि मुंडकोउपनिषद के अनुसार
'सत्यमेव जयति नानृतम' सत्य ही विजयी होता है, असत्य नहीं।
ऐसा
नहीं है कि सत्य सदैव असत्य से श्रेष्ठ होता है परिस्थितियों के अनुसार कभी कभी असत्य
भी सत्य से ज्यादा ईश्वरत्व के निकट होता है और ऐसा असत्य श्रेष्ठतम सत्य की श्रेणी
में आता है महाभारत के “शांतिपर्व में वेदव्यास जी कहते हैं
भवेतु सत्यं न वक्तव्यं वक्तव्यमनृतम
भवेत्।
यत्रानृतं भवेत सत्यं सत्यं वाप्यनृतं भवेत॥
जहां झूठ ही सत्य का कार्य
करे (किसी प्राणी को संकट से बचावे) अथवा सत्य ही झूठ का कार्य करे (किसी के जीवन को
संकट में डाल दे), ऐसे अवसरों पर सत्य नहीं बोलना चाहिये वहां झूठ बोलना ही उचित होता
है। वह सत्य सत्य नहीं है जिसमें हिंसा भरी हो, यदि दयायुक्त हो तो असत्य भी सत्य कहा
जाता है। जिससे मनुष्य का हित हो, वही सत्य है वही सत्य कहना चाहिये जो दूसरों की प्रसन्नता
का कारण हो एवं जो सत्य दूसरों के दुख का कारण हो उसके सम्बन्ध में बुद्धिमान व्यक्ति
को मौन रहना चाहिये। सत्य कहने के स्थान पर मौन रहना या अस्पष्ट सत्य कहना सत्य नहीं
बल्कि असत्य है।
अर्थात....................?
यो वै स धर्म: सत्यं वै तत
तस्मात सत्यं वदन्तमाहु धर्म।
वदतीत धर्म वा वदन्तं सत्यं
वदतीत्येतद्ध्येवैतदुभयं भवति॥
(वृहदारण्यक उपनिषद)
यह जो धर्म है वह सत्य ही है।
इसी से सत्य बोलने वालों के लिये कहा गया है कि यह धर्म बोलता है और धर्म बोलने वाले
के लिये कहते हैं कि यह सत्य बोलता है क्योंकि ये दोनो धर्म ही है। धर्म ही लोक में
सर्वश्रेष्ठ है धर्म में सत्य प्रतिष्ठित है।
समाज में धर्म है कि नहीं यह
सत्य से पहचाना जाता है। जिसमे सत्य है उसमें धर्म की आत्मा है, आज धर्म पर प्रनचिन्ह
लगा है इसका अर्थ है कि कहीं न कहीं सत्य की बुनियाद कमजोर हुई है। यज्ञ, अध्ययन, दान,
तप, क्षमा, दया, निर्लोभता एवं त्याग ये धर्म के आठ मार्ग हैं किन्तु यदि ये सभी मार्ग
सत्य से हटकर चलते हैं तो उनकी मंजिल धर्म नहीं है। धर्म और सत्य एक दूसरे के पूरक
है बिना धर्म के सत्य की और बिना सत्य के धर्म की कल्पना भी नहीं की जा सकती है।
स्वामी रामतीर्थ के अनुसार
सत्य किसी विशेष की सम्पत्ति नहीं है, महर्षि अरविन्द का यही भाव धर्म के लिये है,
विचारक अलग अलग हैं किन्तु दोनो का भाव एक ही है, कान चाहे जिधर से पकड़ो एक ही बात
है। सिन्धी विद्वान शाह अब्दुल लतीफ कहते हैं 'सच्ची पुकार के बिना मत पुकार, सच्चे
बोलने के बिना मत पुकार, सच्चे जलने के सिवा मत जल, सच्चे रोने के सिवा मत रो।' मराठा
तुकाराम का मत है कि 'सत्यवादी, संसार रूपी जल में कमल के समान अलिप्त रहता है।' वहीं
फारसी कवि मौलाना रूम का विचार है कि 'तू अपने होंठ बन्द रख, नेत्र बन्द रख, कान बन्द
रख इतने पर भी तुझे सत्य का गूढ़ अर्थ न मिले तो मेरी हंसी उड़ाना।' स्वामी विवेकानन्द
के अनुसार 'सत्य के लिये सब कुछ त्यागा जा सकता है पर सत्य किसी भी चीज के लिये नहीं
त्यागा जा सकता, उसकी बलि नहीं दी जा सकती।'
कहने का मतलब सिर्फ इतना है
कि धर्म सत्य का ही स्वरूप है। सत्य और धर्म का अलग अलग अध्ययन करने पर यह स्पष्ट होता
है कि मनुष्य धर्म और सत्य के अन्तर का अहसास अवश्य करता है किन्तु धर्म कुछ और नहीं
सिर्फ धर्म है तथा सत्य और कुछ नहीं सिर्फ और सिर्फ धर्म है, राम नाम सत्य है सत्य
बोलो मुक्ति है आशय स्पष्ट है कि राम नाम अर्थात धर्म सत्य है और सत्य ही मुक्ति अर्थात
परमपद की प्राप्ति है।
(इति)।
दिनांक
सितम्बर 22,
2013